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स्मरणीयाः सूक्त्यः श्लोकाः च (Sanskrit Shalok / Thoughts)


स्मरणीयाः  सूक्त्यः श्लोकाः च 
(Sanskrit Shalok / Thoughts)- 


सर्वे भवन्तु सुखिनः,
 सर्वे सन्तु निरामयाः ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद्दुःखभाग्भवेत् ।
अर्थ- हे प्रभु! सभी सुखी रहें, 
सभी स्वस्थ रहें,
 सभी का कल्याण हो तथा इस संसार में कोई दुखी न हो ।
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ॐ भद्रं कर्णेभिः श्रृणुयाम देवाः।
 भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवा गूँ सस्तनूभिः।
 व्यशेमहि देवहितं यदायुः।।
अर्थ- हे प्रभु! हम अपने कानों से जो भी सुने वह पवित्र एवं कल्याणकारी हो ।
आँखों से जो भी देखें वह पवित्र एवं कल्याणकारी हो ।
हम मजबूत एवं स्वस्थ शरीर युक्त होकर सन्तोष-पूर्वक जीवन यापन करें
तथा अपने सम्पूर्ण जीवनकाल में प्रभु के गुणों का गुणगान करते रहें।।
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अलसस्य कुतो विद्या,
अविद्यस्य कुतो धनम्।
अधनस्य कुतो मित्रम्,
अमित्रस्य कुतः सुखम्।।
अर्थ- आलसी को विद्या, अनपढ़ / मूर्ख को धन, निर्धन को मित्र
और अमित्र को सुख की प्राप्ति कभी नहीं हो सकती ।
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असंशयं महाबाहो ! मनो दुर्निग्रहं चलम् ।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।।
(गीता 6.35)
अर्थ- हे महाबाहो ! निःसंदेह ही चंचल मन को वश में करना कठिन है,
किन्तु उसे अभ्यास और वैराग्य से वश में किया जा सकता है
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प्रियवाक्यप्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति मानवाः।
तस्मात् प्रियं हि वक्तव्यं वचने का दरिद्रता।।
अर्थ- प्रिय वचन बोलने से सभी प्रसन्न होते हैं। अतः हमें सदा प्रिय ही बोलना चाहिए ।
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अयं निजः परो वेति
 गणना लघु चेतसाम्।
उदारचरितानां तु
 वसुधैव कुटुम्बकम्।।
अर्थ- यह मेरा हैयह उसका है ; ऐसी सोच संकुचित चित्त वाले व्यक्तियों की होती है;
उदारचरित वाले व्यक्तियों के लिए तो यह सम्पूर्ण धरती ही एक परिवार जैसी होती है।
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पुस्तकस्था तु या विद्या,
परहस्तगतं धनम्।
कार्यकाले समुत्तपन्ने, न सा विद्या न तद् धनम्।।
अर्थ-  पुस्तक में रखी विद्या तथा दूसरे के हाथ में गया धन,
 दोनों ही आवश्यकता के समय हमारे किसी भी काम नहीं आ सकते ।
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आलस्यं हि मनुष्याणां 
शरीरस्थो महान् रिपुः।
नास्त्युद्यमसमोबन्धुः 
कृत्वा यं नावसीदति।।
अर्थ- मनुष्यों के शरीर में रहने वाला आलस्य ही ( उनका ) सबसे बड़ा शत्रु होता है ।
परिश्रम जैसा (हमारा)कोई अन्य मित्र नहीं होता, क्योंकि परिश्रम करने वाला कभी दुखी नहीं होता |
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यथा ह्येकेन चक्रेण न रथस्य गतिर्भवेत् ।
एवं परुषकारेण विना दैवं न सिद्ध्यति ।।
अर्थ- जैसे एक पहिये से रथ नहीं चल सकता है उसी प्रकार
 बिना पुरुषार्थ (परिश्रम) के कार्य सिद्ध नहीं हो सकता है ।
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बलवानप्यशक्तोऽसौ धनवानपि निर्धनः ।
श्रुतवानपि मूर्खोऽसौ यो धर्मविमुखो जनः।।
अर्थ- जो व्यक्ति धर्म ( कर्तव्य ) से विमुख होता है वह ( व्यक्ति ) बलवान् होकर भी असमर्थ,
धनवान् होकर भी निर्धन तथा ज्ञानी हो कर भी मूर्ख होता है ।
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श्रोत्रं श्रुतेनैव न कुंडलेन,
 दानेन पाणिर्न तु कंकणेन,
विभाति कायः करुणापराणां,
परोपकारैर्न तु चन्दनेन ||
अर्थ- कानों की शोभा कुण्डलों से नहीं अपितु ज्ञान की बातें सुनने से होती है,
हाथों की शोभा कंगन पहनने से नहीं अपितु दान देने से होती हैं,
दयालु / सज्जन व्यक्तियों का शरीर चन्दन से नहीं अपितु दूसरों का हित करने से शोभित होता है।

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