स्मरणीयाः श्लोकाः (Shaloks/ Thoughts)-
---------------
सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद्दुःखभाग्भवेत् ।
अर्थ-
हे प्रभु! सभी सुखी रहें, सभी स्वस्थ रहें, सभी का कल्याण हो तथा इस संसार में कोई दुखी न हो ।
---------------
ॐ भद्रं कर्णेभिः श्रृणुयाम देवाः । भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवा गूँ सस्तनूभिः । व्यशेमहि देवहितं यदायुः ।।
अर्थ-
हे प्रभु! हम अपने कानों से जो भी सुने वह पवित्र एवं कल्याणकारी हो ।
आँखों से जो भी देखें वह पवित्र एवं कल्याणकारी हो ।
हम मजबूत एवं स्वस्थ शरीर युक्त होकर सन्तोष-पूर्वक जीवन यापन करें
तथा अपने सम्पूर्ण जीवनकाल में प्रभु के गुणों का गुणगान करते रहें।।
---------------
अलसस्य कुतो विद्या, अविद्यस्य कुतो धनम् ।
अधनस्य कुतो मित्रम्, अमित्रस्य कुतः सुखम् ।।
अर्थ-
आलसी को विद्या, अनपढ़ / मूर्ख को धन, निर्धन को मित्र और अमित्र को सुख की प्राप्ति कभी नहीं हो सकती ।
---------------
असंशयं महाबाहो ! मनो दुर्निग्रहं चलम् ।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ।। (गीता 6.35)
अर्थ-
हे महाबाहो ! निःसंदेह ही चंचल मन को वश में करना कठिन है, किन्तु उसे अभ्यास और वैराग्य से वश में किया जा सकता है ।
---------------
प्रियवाक्यप्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति मानवाः।
तस्मात् प्रियं हि वक्तव्यं वचने का दरिद्रता ।।
अर्थ-
प्रिय वचन बोलने से सभी प्रसन्न होते हैं। अतः हमें सदा प्रिय ही बोलना चाहिए ।
---------------
अयं निजः परो वेति गणना लघु चेतसाम् ।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ।।
अर्थ- यह मेरा है ,यह उसका है ; ऐसी सोच संकुचित चित्त वाले व्यक्तियों की होती है; उदारचरित वाले व्यक्तियों के लिए तो यह सम्पूर्ण धरती ही एक परिवार जैसी होती है ।
---------------
पुस्तकस्था तु या विद्या ,परहस्तगतं धनम् ।
कार्यकाले समुत्तपन्ने, न सा विद्या न तद् धनम् ।।
अर्थ-
पुस्तक में रखी विद्या तथा दूसरे के हाथ में गया धन, दोनों ही आवश्यकता के समय हमारे किसी भी काम नहीं आ सकते ।
---------------
आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः ।
नास्त्युद्यमसमोबन्धुः कृत्वा यं नावसीदति ।।
अर्थ-
मनुष्यों के शरीर में रहने वाला आलस्य ही ( उनका ) सबसे बड़ा शत्रु होता है । परिश्रम जैसा (हमारा)कोई अन्य मित्र नहीं होता, क्योंकि परिश्रम करने वाला कभी दुखी नहीं होता |
---------------
यथा ह्येकेन चक्रेण न रथस्य गतिर्भवेत् ।
एवं परुषकारेण विना दैवं न सिद्ध्यति ।।
अर्थ-
जैसे एक पहिये से रथ नहीं चल सकता है उसी प्रकार बिना पुरुषार्थ (परिश्रम) के कार्य सिद्ध नहीं हो सकता है ।
---------------
बलवानप्यशक्तोऽसौ धनवानपि निर्धनः ।
श्रुतवानपि मूर्खोऽसौ यो धर्मविमुखो जनः ।।
अर्थ-
जो व्यक्ति धर्म ( कर्तव्य ) से विमुख होता है वह ( व्यक्ति ) बलवान् होकर भी असमर्थ, धनवान् होकर भी निर्धन तथा ज्ञानी हो कर भी मूर्ख होता है ।
---------------
श्रोत्रं श्रुतेनैव न कुंडलेन ,दानेन पाणिर्न तु कंकणेन ,
विभाति कायः करुणापराणां ,परोपकारैर्न तु चन्दनेन ||
अर्थ-
कानों की शोभा कुण्डलों से नहीं अपितु ज्ञान की बातें सुनने से होती है, हाथों की शोभा कंगन पहनने से नहीं अपितु दान देने से होती हैं, दयालु / सज्जन व्यक्तियों का शरीर चन्दन से नहीं अपितु दूसरों का हित करने से शोभित होता है |
Comments
Post a Comment