सुविचार: (Thought in Sanskrit)
नमोनमः अद्यतनीय: सुविचार: अस्ति-
(श्लोक-)
अर्थात्-
पुनः कथ्यामि-
( श्लोक-)
धन्यवाद:।
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1) मूर्खस्य पञ्च चिन्हानि, गर्वो दुर्वचनं तथा।
क्रोधश्च दृढवादश्च परवाक्येष्वनादरः॥
(श्लोक-)
अर्थात्-
पुनः कथ्यामि-
( श्लोक-)
धन्यवाद:।
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1) मूर्खस्य पञ्च चिन्हानि, गर्वो दुर्वचनं तथा।
क्रोधश्च दृढवादश्च परवाक्येष्वनादरः॥
मूर्खों के पाँच लक्षण हैं - गर्व, अपशब्द, क्रोध, हठ और दूसरों की बातों का अनादर॥
अतः हमें इन दुर्गुणों से बचना चाहिए।
There are five signs of fools - Pride, abusive language, anger, stubborn arguments and disrespect for other people's opinion.
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2) अष्टौ गुणा पुरुषं दीपयंति,
प्रज्ञा सुशीलत्व-दमौ श्रुतं च।
पराक्रमश्च-बहुभाषिता च,
दानं यथाशक्ति कृतज्ञता च॥
अतः हमें इन दुर्गुणों से बचना चाहिए।
There are five signs of fools - Pride, abusive language, anger, stubborn arguments and disrespect for other people's opinion.
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2) अष्टौ गुणा पुरुषं दीपयंति,
प्रज्ञा सुशीलत्व-दमौ श्रुतं च।
पराक्रमश्च-बहुभाषिता च,
दानं यथाशक्ति कृतज्ञता च॥
आठ गुण पुरुष को सुशोभित करते हैं - बुद्धि, सुन्दर चरित्र, आत्म-नियंत्रण, शास्त्र-अध्ययन, साहस, मितभाषिता, यथाशक्ति दान और कृतज्ञता॥
Eight qualities adorn a man -intellect, good character, self-control, study of scriptures, valor, less talking, charity as per capability and gratitude.
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3) काव्यशास्त्रविनोदेन
कालोगच्छति धीमताम्।
व्यसनेन च मूर्खाणां
निद्रया कलहेन वा ॥
अर्थात- बुद्धिमान लोगों का समय साहित्य के अध्ययन से व्यतीत होता है, परन्तु मूर्ख लोग अपना समय सोने तथा लड़ाई झगड़े में बितातें हैं।
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3) काव्यशास्त्रविनोदेन
कालोगच्छति धीमताम्।
व्यसनेन च मूर्खाणां
निद्रया कलहेन वा ॥
अर्थात- बुद्धिमान लोगों का समय साहित्य के अध्ययन से व्यतीत होता है, परन्तु मूर्ख लोग अपना समय सोने तथा लड़ाई झगड़े में बितातें हैं।
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4) यद्यपि बहु नाधीषे
तथापि पठ पुत्र व्याकरणम्।
स्वजनो श्वजनो माऽ
भूत्सकलं शकलं सकृत्शकृत्॥
4) यद्यपि बहु नाधीषे
तथापि पठ पुत्र व्याकरणम्।
स्वजनो श्वजनो माऽ
भूत्सकलं शकलं सकृत्शकृत्॥
अर्थ : " पुत्र! यदि तुम बहुत विद्वान नहीं बन
पाते हो तो भी व्याकरण (अवश्य) पढ़ो ताकि
'स्वजन'(अपने लोग) 'श्वजन' ( अर्थात कुत्ता) न बने और
'सकल' (सम्पूर्ण) 'शकल' (टूटा हुआ) न बने तथा 'सकृत्' (किसी समय) 'शकृत्' (गोबर का घूरा) न बन जाय। "
कहने का अर्थ यह है कि शब्दों का सही उच्चारण आना चाहिए, गलत उच्चरण से अर्थ का अनर्थ हो सकता है।
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पाते हो तो भी व्याकरण (अवश्य) पढ़ो ताकि
'स्वजन'(अपने लोग) 'श्वजन' ( अर्थात कुत्ता) न बने और
'सकल' (सम्पूर्ण) 'शकल' (टूटा हुआ) न बने तथा 'सकृत्' (किसी समय) 'शकृत्' (गोबर का घूरा) न बन जाय। "
कहने का अर्थ यह है कि शब्दों का सही उच्चारण आना चाहिए, गलत उच्चरण से अर्थ का अनर्थ हो सकता है।
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5) नीरक्षीरविवेके हंस आलस्यम् त्वम् एव तनुषे चेत् ।
विश्वस्मिन् अधुना अन्य: कुलव्रतं पालयिष्यति क: ॥
विश्वस्मिन् अधुना अन्य: कुलव्रतं पालयिष्यति क: ॥
अरे हंस यदि तुम ही आलसी होकर पानी तथा दूध भिन्न करना छोड दोगे तो दूसरा कौन तूम्हारा यह कुलव्रत का पालन कर सकता है ? यदि बुद्धिमान तथा कुशल मनुष्य ही अपना कर्तव्य करना छोड दें तो दूसरा कौन वह काम कर सकता है ?
अर्थात हमें सदा अपने अपने कार्यों को पूरा करने के लिए तत्पर रहना चाहिए।।
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6) अनेकशास्त्रं बहु वेदितव्यम्
अल्पश्च कालो बहवश्च विघ्नाः ।
यत्सारभूतं तदुपासितव्यं
हंसो यथा क्षीरमिवाम्बुमध्यात् ॥
अर्थात हमें सदा अपने अपने कार्यों को पूरा करने के लिए तत्पर रहना चाहिए।।
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6) अनेकशास्त्रं बहु वेदितव्यम्
अल्पश्च कालो बहवश्च विघ्नाः ।
यत्सारभूतं तदुपासितव्यं
हंसो यथा क्षीरमिवाम्बुमध्यात् ॥
सु.भा. - सामान्यनीतिः (१८०/८७८)
अर्थ- जातेन मनुष्येण बहूनां शास्त्राणां विषये यावत् शक्यते तावत् अध्येतव्यम् । तद्विषये विलम्बः न करणीयः । यतः कालः बहु अल्पः । अपि च सत्कार्याणां विघ्नाः अपि बहवः भवन्ति । यथा केनचित् कविना उक्तं - ‘क्षणशः विद्यां साधयेत्’ इति, तथैव कृत्वा शास्त्राध्ययनसमये अपि सारभूतम्, अतिप्रधानम् एव विषयं ज्ञातुम् अधिकः प्रयत्नः करणीयः । जलेन मिश्रितं क्षीरम् एकस्मिन् पात्रे अस्ति चेदपि हंसः यथा क्षीरमेव स्वीकरोति, तथा अध्ययनसमये अनुपयुक्तः अप्रधानः वा भागः परित्यक्तव्यः ।
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7) वाक्संयमो हि नृपते सुदुष्करतमो मतः ।
अर्थवच्च विचित्रं च न शक्यो बहुभाषितुम्॥
Source - Vidur Neeti
MEANING -
Oh the revered King! Control of 'speech' is regarded as most difficult thing to achieve. One will not be able to speak words with Great importance or full of meaning.
अर्थ- जातेन मनुष्येण बहूनां शास्त्राणां विषये यावत् शक्यते तावत् अध्येतव्यम् । तद्विषये विलम्बः न करणीयः । यतः कालः बहु अल्पः । अपि च सत्कार्याणां विघ्नाः अपि बहवः भवन्ति । यथा केनचित् कविना उक्तं - ‘क्षणशः विद्यां साधयेत्’ इति, तथैव कृत्वा शास्त्राध्ययनसमये अपि सारभूतम्, अतिप्रधानम् एव विषयं ज्ञातुम् अधिकः प्रयत्नः करणीयः । जलेन मिश्रितं क्षीरम् एकस्मिन् पात्रे अस्ति चेदपि हंसः यथा क्षीरमेव स्वीकरोति, तथा अध्ययनसमये अनुपयुक्तः अप्रधानः वा भागः परित्यक्तव्यः ।
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7) वाक्संयमो हि नृपते सुदुष्करतमो मतः ।
अर्थवच्च विचित्रं च न शक्यो बहुभाषितुम्॥
Source - Vidur Neeti
MEANING -
Oh the revered King! Control of 'speech' is regarded as most difficult thing to achieve. One will not be able to speak words with Great importance or full of meaning.
MORAL -
SPEAKING WITH MATURED MEANING IS AN ART. ONE HAS TO PRACTICE IT!
SPEAKING WITH MATURED MEANING IS AN ART. ONE HAS TO PRACTICE IT!
THINK BEFORE YOU SPEAK!
EVEN IF YOU CANNOT DO GOOD, ALTEAST TALK GOOD!
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8) प्रियवाक्यप्रदानेन सर्वेतुष्यन्ति जन्तवः ।
तस्मात् प्रियं हि वक्तव्यं वचने किं दरिद्रता।।
तस्मात् प्रियं हि वक्तव्यं वचने किं दरिद्रता।।
*भावार्थ -* मीठी वाणी बोलने से सभी व्यक्ति प्रसन्न और संतुष्ट होते हैं इसलिए सदैव मधुर वचन ही बोलना चाहिये । जब वाणी हमारे आधीन है और इसका कोई मूल्य भी नही देना पड़ता फिर मीठे वचन बोलने में दरिद्रता कैसी ?
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9) चरन् वै मधु विन्दति चरन् स्वादुमुदुम्बरम् ।
सूर्यस्य पश्य श्रेमाणं यो न तन्द्रयते चरँश्चरैवेति ॥
- ऐ॰ ब्रा॰
श्लोक का अर्थ है-
[ अविश्रान्त रूप से अर्थात बिना आराम किए अहर्निश गतिमान् रहने के कारण ही सूर्य विश्ववन्द्य है । अतः जीवन में दृढ़ निश्चय के साथ आगे चलते चलो, चलते चलो ]
- ऐतरेयब्राह्मणम्
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10) चरन् वै मधु विन्दति चरन् स्वादुमुदुम्बरम् ।
सूर्यस्य पश्य श्रेमाणं यो न तन्द्रयते चरंश्चरैवेति ॥
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9) चरन् वै मधु विन्दति चरन् स्वादुमुदुम्बरम् ।
सूर्यस्य पश्य श्रेमाणं यो न तन्द्रयते चरँश्चरैवेति ॥
- ऐ॰ ब्रा॰
श्लोक का अर्थ है-
[ अविश्रान्त रूप से अर्थात बिना आराम किए अहर्निश गतिमान् रहने के कारण ही सूर्य विश्ववन्द्य है । अतः जीवन में दृढ़ निश्चय के साथ आगे चलते चलो, चलते चलो ]
- ऐतरेयब्राह्मणम्
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10) चरन् वै मधु विन्दति चरन् स्वादुमुदुम्बरम् ।
सूर्यस्य पश्य श्रेमाणं यो न तन्द्रयते चरंश्चरैवेति ॥
(चरन् वै मधु विन्दति, चरन् स्वादुम् उदुम्बरम्, सूर्यस्य पश्य श्रेमाणं यः चरन् न तन्द्रयते, चर एव इति ।)
अर्थ – इतस्ततः भ्रमण करते हुए मनुष्य को मधु (शहद) प्राप्त होता है, उसे उदुम्बर (गूलर?) सरीखे सुस्वादु फल मिलते हैं । सूर्य की श्रेष्ठता को तो देखो जो विचरणरत रहते हुए आलस्य नहीं करता है । उसी प्रकार तुम भी चलते रहो (चर एव) ।
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11) अनालस्यं ब्रह्मचर्यं शीलं गुरुजनादरः ।
स्वावलम्बो दृढाभ्यासः षडेते छात्रसद्गुणाः ॥
अर्थात आलस न करना,
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12) भर्तृहरि― नीतिशतकम्, श्लोक सं.-63*
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11) अनालस्यं ब्रह्मचर्यं शीलं गुरुजनादरः ।
स्वावलम्बो दृढाभ्यासः षडेते छात्रसद्गुणाः ॥
अर्थात आलस न करना,
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12) भर्तृहरि― नीतिशतकम्, श्लोक सं.-63*
*सन्तप्तायसि संस्थितस्य पयसो नामापि न ज्ञायते*
*मुक्ताकारतया तदेव नलिनीपत्रस्थितं राजते ।*
*स्वात्यां सागरशुक्तिमध्यपतितं तन्मौक्तिकं जायते*
*प्रायेणाधममध्यमोत्तमजुषामेवंवविधा वृत्तयः।।६३।।*
*भावार्थ*―गर्म लोहे पर पड़ी हुई पानी की बूँद का नाम-निशान भी नहीं रहता, वही बूँद कमल के पत्ते पर गिरकर मोती के समान चमकने लगती है फिर वही बूँद स्वाति नक्षत्र में समुद्र की सीप में पड़कर मोती बन जाती है अतः यह सिद्ध हुआ कि अधम, मध्यम और उत्तम गुण मनुष्य में संन्सर्ग से ही उत्पन्न होते हैं।
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13) *श्रोत्रं श्रुतेन एव, न कुण्डलेन*
*दानेन पाणि:, न तु कंकणेन ।*
*विभाति कायः करुणामयानां*
*परोपकरैः, न तु चन्दनेन।।*
*मुक्ताकारतया तदेव नलिनीपत्रस्थितं राजते ।*
*स्वात्यां सागरशुक्तिमध्यपतितं तन्मौक्तिकं जायते*
*प्रायेणाधममध्यमोत्तमजुषामेवंवविधा वृत्तयः।।६३।।*
*भावार्थ*―गर्म लोहे पर पड़ी हुई पानी की बूँद का नाम-निशान भी नहीं रहता, वही बूँद कमल के पत्ते पर गिरकर मोती के समान चमकने लगती है फिर वही बूँद स्वाति नक्षत्र में समुद्र की सीप में पड़कर मोती बन जाती है अतः यह सिद्ध हुआ कि अधम, मध्यम और उत्तम गुण मनुष्य में संन्सर्ग से ही उत्पन्न होते हैं।
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13) *श्रोत्रं श्रुतेन एव, न कुण्डलेन*
*दानेन पाणि:, न तु कंकणेन ।*
*विभाति कायः करुणामयानां*
*परोपकरैः, न तु चन्दनेन।।*
*भावार्थ*―कानों की शोभा शास्त्र-श्रवण से होती है कुण्डलों से नहीं, हाथ दान से शोभित होते हैं, स्वर्ण-कंकण पहनने से नहीं, इसी प्रकार दयालु पुरुषों का शरीर परोपकार से सुशोभित होता है, चन्दनादि सुगन्धित द्रव्यों के लेप से नहीं।।
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14) यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा शास्त्रं तस्य करोति किम्।
लोचनाभयाम् विहीनस्य दर्पण किं करोति।।
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14) यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा शास्त्रं तस्य करोति किम्।
लोचनाभयाम् विहीनस्य दर्पण किं करोति।।
जिसमें स्वयं बुद्धि नहीं है उसके शास्त्र पढ़ने से कोई लाभ नहीं है, जिस प्रकार अंधे व्यक्ति के लिए दर्पण किसी काम का नहीं होता।
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15) न हृश्यत्यात्मसम्माने नावमानेन तप्यते।
गंगो ह्रद इवाक्षोभ्यो य: स पंडित उच्यते।।
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15) न हृश्यत्यात्मसम्माने नावमानेन तप्यते।
गंगो ह्रद इवाक्षोभ्यो य: स पंडित उच्यते।।
अर्थ: जो अपना आदर-सम्मान होने पर ख़ुशी से फूल नहीं उठता, और अनादर होने पर क्रोधित नहीं होता तथा गंगा के कुण्ड के समान जिसका मन अशांत नहीं होता, वह ज्ञानी कहलाता है।।(इससे विपरीत अज्ञानी)
- महाभारत-विदुरनीति
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16) आत्मनो मुखदोषेण बध्यन्ते शुकसारिकाः। बकास्तत्र न बध्यन्ते मौनं सर्वार्थसाधनम् ।। (पंचतंत्र-4/48)
- महाभारत-विदुरनीति
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16) आत्मनो मुखदोषेण बध्यन्ते शुकसारिकाः। बकास्तत्र न बध्यन्ते मौनं सर्वार्थसाधनम् ।। (पंचतंत्र-4/48)
अपने मुख के दोष (अधिक बोलने के कारण) से तोता और मैना पकड लिए जाते हैं किन्तु कम बोलने के कारण बगुला नहीं पकडा जाता।इस लिए मौन धारण करना सभी कामों के लिए उपयोगी है।अर्थात कम एवं केवल उपयुक्त बात बोलनी चाहिए।
Parrots and starlings are confined(in cages)for the fault of there mouths(there power of speaking and singing)but not the cranes. Silence is golden(silence leads to the accomplishment of all subjects
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17) श्रोत्रं श्रुतेनैव न कुंडलेन,
दानेन पाणिर्न तु कंकणेन,
विभाति कायः करुणापराणां,
परोपकारैर्न तु चन्दनेन ||
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17) श्रोत्रं श्रुतेनैव न कुंडलेन,
दानेन पाणिर्न तु कंकणेन,
विभाति कायः करुणापराणां,
परोपकारैर्न तु चन्दनेन ||
अर्थात् :कानों की शोभा कुण्डलों से नहीं अपितु ज्ञान की बातें सुनने से होती है | हाथ दान करने से सुशोभित होते हैं न कि कंकणों से | दयालु / सज्जन व्यक्तियों का शरीर चन्दन से नहीं बल्कि दूसरों का हित करने से शोभा पाता है |
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18) *सत्येन रक्ष्यते धर्मो, विद्याऽभ्यासेन रक्ष्यते ।
मृज्यया रक्ष्यते रुपं, कुलं वृत्तेन रक्ष्यते ॥*
*भावार्थ :*
*धर्म की रक्षा सत्य से, विद्या की अभ्यास से, रुप की सफाई से, और कुल की रक्षा उच्च आचरण करने से होती है।*
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19) बलवानप्यशक्तोऽसौ, धनवानपि निर्धनः |
श्रुतवानपि मूर्खोऽसौ, यो धर्मविमुखो जनः ||
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18) *सत्येन रक्ष्यते धर्मो, विद्याऽभ्यासेन रक्ष्यते ।
मृज्यया रक्ष्यते रुपं, कुलं वृत्तेन रक्ष्यते ॥*
*भावार्थ :*
*धर्म की रक्षा सत्य से, विद्या की अभ्यास से, रुप की सफाई से, और कुल की रक्षा उच्च आचरण करने से होती है।*
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19) बलवानप्यशक्तोऽसौ, धनवानपि निर्धनः |
श्रुतवानपि मूर्खोऽसौ, यो धर्मविमुखो जनः ||
अर्थात् : जो व्यक्ति धर्म ( कर्तव्य ) से विमुख होता है वह ( व्यक्ति ) बलवान् हो कर भी असमर्थ, धनवान् हो कर भी निर्धन तथा ज्ञानी हो कर भी मूर्ख होता है |
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20) सुखार्थी वा त्यजेत विद्याम्
विद्यार्थी वा त्यजेत सुखम् |
सु:खार्थिनो कुतो विद्या
विद्यार्थिनो कुतो सुखम् ||
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20) सुखार्थी वा त्यजेत विद्याम्
विद्यार्थी वा त्यजेत सुखम् |
सु:खार्थिनो कुतो विद्या
विद्यार्थिनो कुतो सुखम् ||
Meaning:
Those who are in pursuit of a comfortable life (sukh) should forget about learning (vidya) and those who are in pursuit of learning should forget about comfortable living. Those who are after pleasures of life never become learned and those who want to be learned should never expect to lead an easy life as they have to toil to gain knowledge..
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21) पित्रा प्रताडितः पुत्रः
शिष्योऽपि गुरुणा तथा ।
सुवर्णं स्वर्णकारेण
भूषणमेव जायते ।।
Those who are in pursuit of a comfortable life (sukh) should forget about learning (vidya) and those who are in pursuit of learning should forget about comfortable living. Those who are after pleasures of life never become learned and those who want to be learned should never expect to lead an easy life as they have to toil to gain knowledge..
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21) पित्रा प्रताडितः पुत्रः
शिष्योऽपि गुरुणा तथा ।
सुवर्णं स्वर्णकारेण
भूषणमेव जायते ।।
पिता के द्वारा डांटा गया पुत्र, गुरु के द्वारा डांटा गया शिष्य तथा सुनार के द्वारा पीटा गया सोना , ये सब आभूषण ही बनते हैं।।
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22) पापान्निवारयति योजयते हिताय,
गुह्यं निगूहति गुणान् प्रकटी करोति।
आपद्गतं च न जहाति ददाति काले,
सन्मित्रलक्षणमिदं प्रवदन्ति सन्तः।।
(भर्तृ.नीति.63)
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22) पापान्निवारयति योजयते हिताय,
गुह्यं निगूहति गुणान् प्रकटी करोति।
आपद्गतं च न जहाति ददाति काले,
सन्मित्रलक्षणमिदं प्रवदन्ति सन्तः।।
(भर्तृ.नीति.63)
अच्छे मित्र के लक्षण नीतिकार इस प्रकार कहते हैं - जो पापयुक्त आचरण करने से रोकता है, कल्याण कार्यो में लगाता है, गुप्त बातों को छिपाता है, अप्रकट गुणों को भी प्रकट करता है, विपत्ति के समय नहीं छोड़ता है, विपत्ति में यथाशक्तिः धन आदि देकर सहायता करता है वही श्रेष्ठ मित्र हैं।
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23) आदरात् संगृहीतेन शत्रुणा शत्रुमुद्धरेत्|
पादलग्नं करस्थेन कण्टकेनैव कण्टकम्||
अर्थ- आदर देकर वश में किये हुए शत्रु से शत्रु को नष्ट करना चाहिए| जैसे यदि पाँव में काँटा चुभ जाए, तो उसे हाथ में पकड़े काँटे से ही निकाला जाता है। व्यक्ति को चाहिए कि वह शत्रु को भी आदर दें इससे शत्रुता स्वयं ही नष्ट हो जाती है।
24) काक चेष्टा, बको ध्यानं
स्वान निद्रा तथैव च l
अल्पाहारी गृहत्यागी
विद्यार्थी पञ्च लक्षणम् ll
अर्थ-
शास्त्रों में विद्यार्थी के इसके अतिरिक्त और कोई लक्षण बताए गए हैं तो कृपया मार्गदर्शन करें l
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