गायत्री मन्त्र व ओ३म् की महिमा
शंख ऋषि कहते हैं-
*सव्याहृतिकां सप्रणवां गायत्रीं शिरसा सह ।*
*ये जपन्ति सदा तेषां न भयं विद्यते क्वचित् ।।*-(१२/१४)
अर्थात् जो सदा गायत्री का जाप व्याहृतियों और ओंकार सहित करते हैं,उन्हें कभी भी कोई भय नहीं सताता।
*शतं जप्त्वा तु सा देवी दिन-पाप-प्रणाशिनी ।*
*सहस्रं जप्त्वा तु तथा पातकेभ्यः समुद्धरेत् ।।*-(१२/१५)
गायत्री का सौ बार जाप करने से दिन भर के पाप नष्ट हो जाते हैं तथा दिन भर पापों का प्राबल्य नहीं होने पाता और एक सहस्र बार जाप करने से यह गायत्री मन्त्र मनुष्य को पातकों से ऊपर उठा देता है और उसके मन की रुचि पातकों की और नहीं रहती।अर्थात् मनुष्य के मन में पाप की कोई मैल नहीं रहने पाती।
*ओ३म् की महिमा*
(१) *प्रश्नोपनिषद् मे*:-पिप्पलाद ऋषि सत्यकाम को कहते हैं-
हे सत्यकाम ! ओंकार जो सचमुच पर और अपर ब्रह्म है (अर्थात्) उसकी प्राप्ति का साधन है जो उपासक उस सर्वव्यापक परमेश्वर का ओ३म् शब्द द्वारा ध्यान करता है,वह ब्रह्म को प्राप्त होता है।जो कृपासिन्धु,परमात्मा,अजर अमर अविनाशी सर्वश्रेष्ठ है,उस सर्वज्ञ अन्तर्यामी परमात्मा को सर्वसाधारण ओंकार के द्वारा प्राप्त होते हैं।
(२) *कठोपनिषद*:-समस्त वेद जिस पद का अभ्यास करते हैं,तपीश्वर जिसका प्रतिपादन (बार-बार गायन) करते हैं,जिसकी इच्छा करते हुए ब्रह्मचारी ब्रह्मचर्य व्रत का सेवन करते हैं,वह परमपद मैं तुझसे संक्षिप्त रुप में वर्णन करता हूं वह महापद ओ३म् है।वह अक्षर ब्रह्म है.वह परम अक्षर है उसी अक्षर को जानकर जो कुछ चाहता है,वह वही कुछ प्राप्त कर लेता है।यही सबसे बड़ा सहारा है।इसी सहारे को पकड़कर मनुष्य ब्रह्मलोक को पहुंच जाता है।
(३) *माण्डूक्योपनिषद्*:-ओंकार धनुष है,आत्मा तीर है और ब्रह्म उसका लक्ष्य कहलाता है।इसको अप्रमत्त(पूरा सावधान) पुरुष ही बींध सकता है,जब वह तीर के समान तन्मय हो जाता है।
(४) *श्वेताश्वतर उपनिषद्*:-
अपने देह को अरनी(नीचे की लकड़ी) बनाकर ओ३म् को ऊपर की अरनी बनाओ और ध्यान रुपी रगड़ के अभ्यास से अपने इष्टदेव परमात्मा के दर्शन कर लो।जैसे छिपी हुई अग्नि के रगड़ से दर्शन होते हैं वैसे ही ओ३म् द्वारा इस देह में आत्मा का दर्शन किया जा सकता है।
(५) *छान्दोग्योपनिषद्*:-छान्दोग्योपनिषद् का भी जो सामवेद के महाब्राह्मण का एक भाग है,यही कथन है कि-
"वह साधक जब उसे ब्रह्मलोक को जाना होता है,जिसे उसने उपासना द्वारा जाना है,ओ३म् पर ध्यान जमाता हुआ वहां जाता है" अतः प्रत्येक व्यक्ति को उचित है कि उस अविनाशी स्तुत्य ओ३म् नामक ब्रह्म की उपासना करे।
(६) *तैत्तिरीयोपनिषद्*:-ओ३म् ब्रह्म का नाम है।ओ३म् ही सार वस्तु है।यज्ञ में इसी को सुनते सुनाते हैं।सामवेदी ओ३म् को ही पाते हैं।ऋग्वेदी भी इसी ओ३म् की ही स्तुति करते हैं।यजुर्वेदी अध्वर्यु भी अपने प्रत्येक वचन में ओंकार का ही बखान करते हैं।ब्रह्मा नामक ऋत्विक् ओंकार द्वारा ही आज्ञा देता है।अग्निहोत्र के लिए ओंकार के द्वारा ही आज्ञा दी जाती है।ब्रह्मवादी ओ३म् के द्वारा ही ब्रह्म को प्राप्त होते हैं।
(७) *महर्षि पतंजलि*:-
उस ईश्वर का वाचक प्रणव अर्थात् ओंकार है।उसका जप और उसके अर्थों पर विचार करना चाहिए।
(८) *योगी याज्ञवल्क्य*:-
जो ब्रह्म दिखाई नहीं देता और जो मन के द्वारा अनुभव नहीं होता,जिसका अस्तित्व सिद्ध है,केवल मनन द्वारा ही पहचाना जाता है।उसी का ओंकार नाम है।उसी के नाम पर आहुति देने से वह प्रसन्न होता है।
(९) *वेदव्यास जी*:-
जिज्ञासु वेद पढ़ते हुए और ओ३म् का जप करते हुए योग में मग्न और योग समाधि में भी ओ३म् का ध्यान करें।इस जप और योग के द्वारा ही परमात्मा का ज्ञान होता है।
(१०) *गीता*:-
हे अर्जुन ! जो मनुष्य इस एकाक्षर ब्रह्म 'ओ३म्' को कहते हुए और उसके द्वारा अन्त समय ब्रह्म को याद करते हुए इस शरीर को त्याग देते हैं,वह परमगति को प्राप्त होते हैं। -(८/१३)
यह ओंकार जानने के योग्य और परम पवित्र है इसी प्रकार इस ब्रह्मज्ञान के लिए ऋग्वेद,यजुर्वेद और सामवेद जानने के योग्य हैं।-(९/१७)
ओ३म् तत् सत् इन तीनों पदों से ब्रह्म का निरुपण होता है,अतः ब्रह्मवादियों के यज्ञ,दान,तप आदि समस्त शुभ कर्मों का आरम्भ ओ३म् से होता है।-(१७/२३/२४)
(११) *यजुर्वेद का शतपथ ब्राह्मण*:-
सर्वव्यापक सर्वज्ञ सर्वान्तर्यामी सर्वरक्षक 'ओ३म्' ब्रह्म सबसे महान् है।यह सबसे बड़ा है।सबसे प्राचीन तथा सनातन है.वही सबका प्राणदाता है।ओंकार शब्द ही वेदस्वरुप है।इसी ओ३म् के द्वारा समस्त ज्ञेय (जानने योग्य) पदार्थ जाने जा सकते हैं।
(१२) *सामवेद का ताण्डय् महाब्राह्मण*:-जो कोई यथार्थ रुप से ओंकार को नहीं जानता वह वेद के आश्रित नहीं रहता अर्थात् धर्म के अधीन न रहकर संसार में अधर्म तथा उपद्रव फैलाने वाला हो जाता है,परन्तु जो ओंकार को इस प्रकार से जानता है वह वेद के आश्रित रहकर संसार का उपकार करता है।
इसी ब्राह्मण में अलंकार रुप से ओ३म् की महिमा का वर्णन करते हुए यह दर्शाया है कि किस प्रकार ओ३म् के आश्रय में आने और उसके द्वारा ब्रह्म को जानने से दैनिक देवासुर संग्राम में मनुष्य को विजय तथा सफलता प्राप्त होती है।
(१३) *वेद भगवान्*:-
*ओ३म् वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्तं शरीरम् ।*
*ओ३म् क्रतो स्मर।क्लिबे स्मर।कृतं स्मर ।*-(यजु० ४०/१५)
इस मन्त्र में भी ओ३म् नाम की ही स्पष्ट आज्ञा है।
शंख ऋषि कहते हैं-
*सव्याहृतिकां सप्रणवां गायत्रीं शिरसा सह ।*
*ये जपन्ति सदा तेषां न भयं विद्यते क्वचित् ।।*-(१२/१४)
अर्थात् जो सदा गायत्री का जाप व्याहृतियों और ओंकार सहित करते हैं,उन्हें कभी भी कोई भय नहीं सताता।
*शतं जप्त्वा तु सा देवी दिन-पाप-प्रणाशिनी ।*
*सहस्रं जप्त्वा तु तथा पातकेभ्यः समुद्धरेत् ।।*-(१२/१५)
गायत्री का सौ बार जाप करने से दिन भर के पाप नष्ट हो जाते हैं तथा दिन भर पापों का प्राबल्य नहीं होने पाता और एक सहस्र बार जाप करने से यह गायत्री मन्त्र मनुष्य को पातकों से ऊपर उठा देता है और उसके मन की रुचि पातकों की और नहीं रहती।अर्थात् मनुष्य के मन में पाप की कोई मैल नहीं रहने पाती।
*ओ३म् की महिमा*
(१) *प्रश्नोपनिषद् मे*:-पिप्पलाद ऋषि सत्यकाम को कहते हैं-
हे सत्यकाम ! ओंकार जो सचमुच पर और अपर ब्रह्म है (अर्थात्) उसकी प्राप्ति का साधन है जो उपासक उस सर्वव्यापक परमेश्वर का ओ३म् शब्द द्वारा ध्यान करता है,वह ब्रह्म को प्राप्त होता है।जो कृपासिन्धु,परमात्मा,अजर अमर अविनाशी सर्वश्रेष्ठ है,उस सर्वज्ञ अन्तर्यामी परमात्मा को सर्वसाधारण ओंकार के द्वारा प्राप्त होते हैं।
(२) *कठोपनिषद*:-समस्त वेद जिस पद का अभ्यास करते हैं,तपीश्वर जिसका प्रतिपादन (बार-बार गायन) करते हैं,जिसकी इच्छा करते हुए ब्रह्मचारी ब्रह्मचर्य व्रत का सेवन करते हैं,वह परमपद मैं तुझसे संक्षिप्त रुप में वर्णन करता हूं वह महापद ओ३म् है।वह अक्षर ब्रह्म है.वह परम अक्षर है उसी अक्षर को जानकर जो कुछ चाहता है,वह वही कुछ प्राप्त कर लेता है।यही सबसे बड़ा सहारा है।इसी सहारे को पकड़कर मनुष्य ब्रह्मलोक को पहुंच जाता है।
(३) *माण्डूक्योपनिषद्*:-ओंकार धनुष है,आत्मा तीर है और ब्रह्म उसका लक्ष्य कहलाता है।इसको अप्रमत्त(पूरा सावधान) पुरुष ही बींध सकता है,जब वह तीर के समान तन्मय हो जाता है।
(४) *श्वेताश्वतर उपनिषद्*:-
अपने देह को अरनी(नीचे की लकड़ी) बनाकर ओ३म् को ऊपर की अरनी बनाओ और ध्यान रुपी रगड़ के अभ्यास से अपने इष्टदेव परमात्मा के दर्शन कर लो।जैसे छिपी हुई अग्नि के रगड़ से दर्शन होते हैं वैसे ही ओ३म् द्वारा इस देह में आत्मा का दर्शन किया जा सकता है।
(५) *छान्दोग्योपनिषद्*:-छान्दोग्योपनिषद् का भी जो सामवेद के महाब्राह्मण का एक भाग है,यही कथन है कि-
"वह साधक जब उसे ब्रह्मलोक को जाना होता है,जिसे उसने उपासना द्वारा जाना है,ओ३म् पर ध्यान जमाता हुआ वहां जाता है" अतः प्रत्येक व्यक्ति को उचित है कि उस अविनाशी स्तुत्य ओ३म् नामक ब्रह्म की उपासना करे।
(६) *तैत्तिरीयोपनिषद्*:-ओ३म् ब्रह्म का नाम है।ओ३म् ही सार वस्तु है।यज्ञ में इसी को सुनते सुनाते हैं।सामवेदी ओ३म् को ही पाते हैं।ऋग्वेदी भी इसी ओ३म् की ही स्तुति करते हैं।यजुर्वेदी अध्वर्यु भी अपने प्रत्येक वचन में ओंकार का ही बखान करते हैं।ब्रह्मा नामक ऋत्विक् ओंकार द्वारा ही आज्ञा देता है।अग्निहोत्र के लिए ओंकार के द्वारा ही आज्ञा दी जाती है।ब्रह्मवादी ओ३म् के द्वारा ही ब्रह्म को प्राप्त होते हैं।
(७) *महर्षि पतंजलि*:-
उस ईश्वर का वाचक प्रणव अर्थात् ओंकार है।उसका जप और उसके अर्थों पर विचार करना चाहिए।
(८) *योगी याज्ञवल्क्य*:-
जो ब्रह्म दिखाई नहीं देता और जो मन के द्वारा अनुभव नहीं होता,जिसका अस्तित्व सिद्ध है,केवल मनन द्वारा ही पहचाना जाता है।उसी का ओंकार नाम है।उसी के नाम पर आहुति देने से वह प्रसन्न होता है।
(९) *वेदव्यास जी*:-
जिज्ञासु वेद पढ़ते हुए और ओ३म् का जप करते हुए योग में मग्न और योग समाधि में भी ओ३म् का ध्यान करें।इस जप और योग के द्वारा ही परमात्मा का ज्ञान होता है।
(१०) *गीता*:-
हे अर्जुन ! जो मनुष्य इस एकाक्षर ब्रह्म 'ओ३म्' को कहते हुए और उसके द्वारा अन्त समय ब्रह्म को याद करते हुए इस शरीर को त्याग देते हैं,वह परमगति को प्राप्त होते हैं। -(८/१३)
यह ओंकार जानने के योग्य और परम पवित्र है इसी प्रकार इस ब्रह्मज्ञान के लिए ऋग्वेद,यजुर्वेद और सामवेद जानने के योग्य हैं।-(९/१७)
ओ३म् तत् सत् इन तीनों पदों से ब्रह्म का निरुपण होता है,अतः ब्रह्मवादियों के यज्ञ,दान,तप आदि समस्त शुभ कर्मों का आरम्भ ओ३म् से होता है।-(१७/२३/२४)
(११) *यजुर्वेद का शतपथ ब्राह्मण*:-
सर्वव्यापक सर्वज्ञ सर्वान्तर्यामी सर्वरक्षक 'ओ३म्' ब्रह्म सबसे महान् है।यह सबसे बड़ा है।सबसे प्राचीन तथा सनातन है.वही सबका प्राणदाता है।ओंकार शब्द ही वेदस्वरुप है।इसी ओ३म् के द्वारा समस्त ज्ञेय (जानने योग्य) पदार्थ जाने जा सकते हैं।
(१२) *सामवेद का ताण्डय् महाब्राह्मण*:-जो कोई यथार्थ रुप से ओंकार को नहीं जानता वह वेद के आश्रित नहीं रहता अर्थात् धर्म के अधीन न रहकर संसार में अधर्म तथा उपद्रव फैलाने वाला हो जाता है,परन्तु जो ओंकार को इस प्रकार से जानता है वह वेद के आश्रित रहकर संसार का उपकार करता है।
इसी ब्राह्मण में अलंकार रुप से ओ३म् की महिमा का वर्णन करते हुए यह दर्शाया है कि किस प्रकार ओ३म् के आश्रय में आने और उसके द्वारा ब्रह्म को जानने से दैनिक देवासुर संग्राम में मनुष्य को विजय तथा सफलता प्राप्त होती है।
(१३) *वेद भगवान्*:-
*ओ३म् वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्तं शरीरम् ।*
*ओ३म् क्रतो स्मर।क्लिबे स्मर।कृतं स्मर ।*-(यजु० ४०/१५)
इस मन्त्र में भी ओ३म् नाम की ही स्पष्ट आज्ञा है।
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ReplyDeleteNice post sir keep grow
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