मेरा शिक्षण-दर्शन
प्रस्तावना- भाषा
हमारे जीवन का महत्वपूर्ण अंग है। भाषा शिक्षक एक दार्शनिक है जो अपने दर्शन के
अनुसार बालक के जीवन के विभिन्न पक्षों को विकसित करके वांछित लक्ष्य को प्राप्त
करने का प्रयास करता है। सीखना एक अनुभव है जो सूचना या जानकारी के संप्रेषण से
कहीं अधिक है । यदि उपयुक्त अवसर एवं स्वतंत्रता दी जाए तो विद्यार्थी स्वयं
प्रयास कर नए ज्ञान का सृजन करते हैं और यह ज्ञान स्थायी प्रकृति का होता है। अतः
आवश्यक है कि हम अपने विद्यार्थियों को समझें और उन्हें सीखने की प्रक्रिया में
भागीदार बनाएं। यह भी जरूरी है कि शिक्षण अधिगम प्रक्रिया बाल केंद्रित हो जो
जिज्ञासा, खोज, अनुभव और संवाद के आधार
पर संचालित, लचीली और रुचिपूर्ण हो।
विषय वस्तु- शिक्षण अधिगम प्रक्रिया के तीन
अनिवार्य तत्व हैं - शिक्षक, शिक्षार्थी और पर्यावरण। मेरा
विश्वास है कि विद्यार्थी देखकर और उसका अनुकरण कर सीखता है । अतः मैं अपने
विद्यार्थियों के समक्ष प्रथम उदाहरण अपना ही रखता हूँ । जिस दिन मैं
कक्षा में बहुत ऊर्जावान होता हूँ, उस दिन वे भी बहुत
उत्साहित होते हैं। जिस दिन मेरा उत्साह कम होता है, उस दिन
वे भी कम उत्साहित प्रतीत होते हैं। अतः मेरे
अनुसार एक अध्यापक जो कुछ बच्चों को सिखाना चाहता है, वह
न केवल बोले बल्कि वैसा ही आचरण भी करें क्योंकि बच्चे बोली हुई बातों से ज़्यादा
उनके समक्ष की गई गतिविधियों अथवा आचरणों से सीखते हैं । उनके
समक्ष की गई गतिविधियों द्वारा सीखा गया ज्ञान उनके मानस पटल पर लंबे समय तक अंकित रहता है ।
वर्तमान के डिजिटल युग ने
शिक्षकों की भूमिका को बदल दिया है । अतः मैं भी शिक्षण में तकनीक का समावेश कर
विषय वस्तु को रोचक बनाते हुए मार्गदर्शन, संरक्षण और प्रोत्साहन
के माध्यम से रचनात्मक लेखन एवं संप्रेषण कौशल के विकास को विशेष महत्व देता हूँ। इस कार्य हेतु मेरे द्वारा ब्लॉग/ वेबस्थल का निर्माण भी किया गया है। जिसका नाम है (https://sanskritprabha.blogspot.com)
भाषा शिक्षक के रूप में
मेरा शिक्षण दर्शन पूरी तरह से विद्यार्थी केन्द्रित है। मेरा मानना है कि सीखने
की प्रक्रिया में हर विद्यार्थी के मस्तिष्क की गुणवत्ता अलग-अलग होती है। हमारा
काम है उन्हें सही गतिविधियों में संलग्न कर रोचक, नवाचार और
नए प्रयोग द्वारा उनकी क्षमताओं का विकास करना जिससे भविष्य में वास्तविक दुनिया
का सामना कर सकें। मैं शिक्षा प्रणाली के मानकीकरण में विश्वास नहीं करता, समय-समय पर सुगमता से सीखने के लिए इसे लचीला बनाने में संकोच नहीं करता।
मेरा मानना है कि
शिक्षक की भूमिका एक मार्गदर्शक के रूप में काम करना है और विद्यार्थियों को उनको लक्ष्य की खोज में मदद करना है। साथ ही कक्षा के बाहर भी जीवन तलाशने के लिए
उत्प्रेरित करना है। अतः मैं अपनी कक्षा में साहित्यिक अभिरुचि व काव्यात्मक
रसानुभूति के साथ-साथ विद्यार्थियों के ज्ञानात्मक, भावनात्मक, सामाजिक और संज्ञानात्मक क्षमताओं के विकास पर निम्नांकित गतिविधियों को
आवश्यकतानुसार अपनी पाठ योजना में शामिल करता हूं-
# सही उच्चारण हेतु
अनुकरण वाचन करवाना।
# दृश्य- श्रव्य सामग्री
प्रस्तुत कर उस पर आधारित प्रश्नावली से श्रवण कौशल का मूल्यांकन करना।
#श्लोक उच्चारण करवाना।
# संप्रेषण कौशल के
विकास हेतु वाद- विवाद और संवाद प्रतियोगिता का आयोजन।
# कार्यप्रणाली जैसे पाठ
से कठिन शब्दों की प्रश्नोत्तरी, भाषा खेल, श्रुतलेख, व्याकरण के विभिन्न अव्यवों को सिखाने के लिए हाइलाइटर्स का प्रयोग।
# तकनीकों को एकीकृत
करके अपनी योजना और पाठ में यथासंभव ऊर्जा लाने की कोशिश करना।
# रचनात्मक लेखन को
बढ़ावा देने के लिए रोचक और विद्यार्थियों के जीवन से जुड़े जीवन प्रसंगों पर लेखन
कार्य करवाना।
# साहित्य के क्षेत्र
में कार्यरत विशिष्ट लोगों को कक्षा में आमंत्रित करना।
# पूर्व विद्यार्थियों
को कक्षा में आमंत्रित करना।
# प्रतिपुष्टि की
जानकारी लेना।
# विद्यालय का भ्रमण
करवाकर विद्यालय में उपलब्ध सामग्री जैसे प्रदर्शन पट्ट आदि के माध्यम से संदेश
देना।
# शिक्षण में पाठ के
अनुसार नित्य प्रति नवीनता का समावेश।
# नाटक का मंचन।
# प्रोत्साहन हेतु
प्रमाण- पत्र वितरित करना।
# सर्वाधिक अंक प्राप्त
कर्ता को सम्मानित करना।
निष्कर्ष- शिक्षण विधि व
कक्षा का वातावरण सभी बच्चों के अनुसार बनाकर प्रत्येक छात्र को समान अवसर प्रदान
किया जाना चाहिए। शिक्षक को हमेशा ही ज्ञात होना चाहिए कि कब और किस समय हम किन-
किन शैक्षिक तकनीकों के माध्यम से शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को संपादित कर सकते हैं
। जब शिक्षक द्वारा निर्धारित शैक्षिक उद्देश्यों की प्राप्ति होती है तो वह पल
शिक्षक हेतु अत्यंत ही आनंद विभोर करने वाले होते हैं । अतः भाषा शिक्षण का
उद्देश्य भाषा की समझ और अभिव्यक्ति का विकास करना है। इसकी प्राप्ति हेतु आत्मीय
परिवेश आवश्यक है जिसमें हर बच्चा अपनी सोच और भावनाओं को बगैर डर और संकोच के
व्यक्त कर सकें।
विपिन शर्मा
प्र.स्ना.शि. (संस्कृत)
केंद्रीय विद्यालय
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