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8.5.1 कक्षा-अष्टमी, विषय:-संस्कृतम् पञ्चमः पाठ: (कण्टकेनैव कण्टकम्) Class- 8th, Subject- Sanskrit, Lesson- 5 (KantkenAiv Kantkam)

8.5.1 कक्षा-अष्टमी,  विषय:-संस्कृतम्
पञ्चमः  पाठ:  (कण्टकेनैव कण्टकम्)  
Class- 8th,  Subject- Sanskrit,  Lesson- 5 
(KantkenAiv Kantkam)
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🙏 नमो नमः। 
अष्टमकक्ष्यायाः 'रुचिरा भाग-3' इति पाठ्यपुस्तकस्य शिक्षणे स्वागतम् । 
अद्य वयं पञ्चमं पाठं पठामः। 
पाठस्य नाम अस्ति - 
               कण्टकेनैव कण्टकम् 
अहं डॉ. विपिन:। 
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                   कण्टकेनैव कण्टकम् 
कण्टकेन+एव कण्टकम् 

कण्टकेन्  - कांटे से 
एव           - ही
कण्टकम्  - कांटा

कांटे से ही कांटा निकलता है। 
अथवा 
दुष्ट व्यक्ति के साथ दुष्टता का ही व्यवहार करना चाहिए। 

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           पञ्चमः पाठः - कण्टकेनैव कण्टकम्


(1) आसीत् कश्चित् चंचलो नाम व्याधः। 
सरलार्थ- 
कोई चंचल नाम का शिकारी था। 

पक्षिमृगादीनां ग्रहणेन सः स्वीयां जीविकां निर्वाहयति स्म। 
पक्षियों व जंगली पशुओं के पकड़ने से वह अपनी जीविका चलाता था।

एकदा सः वने जालं विस्तीर्य गृहम् आगतवान्। 
एक बार वह जंगल में जाल फैलाकर घर लौट आया। 


अन्यस्मिन् दिवसे प्रातःकाले यदा चंचलः वनं गतवान् तदा सः दृष्टवान् यत् तेन विस्तारिते जाले दौर्भाग्याद् एकः व्याघ्रः बद्धः आसीत्।
दूसरे दिन सुबह जब चञ्चल वन में गया तब उसने देखा कि उसके द्वारा फैलाए गए जाल में दुर्भाग्य से एक बाघ बँधा था। 

 सोSचिन्तयत् (सः+अचिन्तयत्), ‘व्याघ्रः मां खादिष्यति अतएव पलायनं करणीयम्।’ 
उसने सोचा- बाघ मुझे खा जाएगा, इसलिए (यहाँ से मुझे) भाग जाना चाहिए।

व्याघ्रः न्यवेदयत्- ‘भो मानव! कल्याणं भवतु ते। 
बाघ ने निवेदन किया- हे मानव! तुम्हारा कल्याण हो। 

यदि त्वं मां मोचयिष्यसि तर्हि अहं त्वां न हनिष्यामि।’
यदि तुम मुझे छोड़ दोगे तो मैं तुम्हें नहीं मारूँगा।

 तदा सः व्याधः व्याघ्रं जालात् बहिः निरसारयत्। 
   तब  उस शिकारी ने बाघ को जाल से बाहर निकाल दिया।


(2) व्याघ्रः क्लान्तः आसीत्। 
सरलार्थ- 
बाघ थका हुआ था।

सोsवदत् (सः+अवदत्), ‘भो मानव! पिपासुः अहम्। 
वह बोला- हे मानव! मैं प्यासा हूँ।

नद्याः जलमानीय (जलम्+आनीय)मम पिपासां शमय। 
नदी से जल लाकर मेरी प्यास बुझा दो।

व्याघ्रः जलं पीत्वा पुनः व्याधमवदत्, ‘शमय मे पिपासा।
बाघ जल पीकर फिर शिकारी से बोला- मेरी प्यास बुझ गई है।

 साम्प्रतं बुभुक्षितोSस्मि (बुभुक्षितः+अस्मि)। 
अब मैं भूखा हूँ।

 इदानीम् अहं त्वां खादिष्यामि।’ 
अब मैं तुम्हें खाऊँगा। 

 चंचलः उक्तवान्, ‘अहं त्वत्कृते धर्मम् आचरितवान्। 
चञ्चल ने कहा- मैंने तुम्हारे लिए धर्म का आचरण किया।


त्वया मिथ्या भणितम्। त्वं मां खादितुम् इच्छसि? 
तुमने झूठ बोला। तुम मुझे खाना चाहते हो


व्याघ्रः अवदत्, ‘अरे मूर्ख! क्षुधार्ताय किमपि अकार्यम् न भवति। सर्वः स्वार्थं समीहते।’ 
       बाघ बोला- अरे मूर्ख! भूखे के लिए कुछ भी अकार्य (न करने योग्य) नही हैं। सभी स्वार्थ की इच्छा करते हैं।

(3) चञ्चल: नदीजलम् अपृच्छत्। 
सरलार्थ-
 चञ्चल ने नदी के जल से पूछा। 

नदीजलम् अवदत्, ‘एवमेव भवति,
नदी के जल ने कहा- ऐसा ही होता है,



 जनाः मयि स्नानं कुर्वन्ति,
लोग मुझमें स्नान करते हैं,

 वस्त्रणि प्रक्षालयन्ति तथा च मल-मूत्रादिकं विसृज्य निवर्तन्ते, 
कपड़े धोते हैं और मल-मूत्र आदि भी छोड़कर चले जाते हैं, 

वस्तुतः सर्वः स्वार्थं समीहते। 
इसलिए सभी स्वार्थ की इच्छा करते हैं। 


(4) चञ्चल: वृक्षम् उपगम्य अपृच्छत्। 
सरलार्थ- 
चञ्चल ने वृक्ष के पास जाकर पूछा।

वृक्षः अवदत्, ‘मानवाः अस्माकं छायायां विरमन्ति।
वृक्ष बोला-मानव हमारी छाया में विश्राम करते हैं। 

 अस्माकं फलानि खादन्ति, 
हमारे फल खाते हैं, 

पुनः कुठारैः प्रहृत्य अस्मभ्यं सर्वदा कष्टं ददति। 
फिर (भी) कुल्हाड़ियों से प्रहार करके हमें हमेशा कष्ट देते हैं। 

यत्र कुत्रपि छेदनं कुर्वन्ति। 
जहाँ-कहीं भी काटते हैं। 


सर्वः स्वार्थं समीहते।’ 
सभी स्वार्थ की इच्छा करते हैं। 


(5) समीपे एका लोमशिका बदरी-गुल्मानां पृष्ठे निलीना एतां वार्तां शृणोति स्म। 
सरलार्थ- 
पास में एक लोमड़ी बेर के झाड़ के पीछे छिपी हुई यह बात सुन रही थी। 


सा सहसा चञ्चलमुपसृत्य (चञ्चलम्+अपसृत्य)  कथयति- का वार्ता? माम् अपि विज्ञापय।
वह अचानक चञ्चल के पास आकर कहती है -'क्या बात है मुझे भी बताओ। 


 सः अवदत् - अहह मातृस्वसः! अवसरे त्वं समागतवती। 
वह बोला - अरे मौसी! तुम सही अवसर पर आई हो।

मया अस्य व्याघ्रस्य प्राणाः रक्षिताः, 
मैंने इस बाघ के प्राण बचाएए


परम् एषः मामेव खादितुम् इच्छति। 
परन्तु यह मुझे ही खाना चाहता है।

तदनन्तरं सः लोमशिकायै निखिलां कथां न्यवेदयत्।
   इसके बाद उसने लोमड़ी को सारी कथा बताई।


(6) लोमशिका चञ्चलम् अकथयत्- बाढम्, त्वं जालं प्रसारय। 
सरलार्थ- 
लोमड़ी ने चञ्चल से कहा- ठीक है, तुम जाल फैलाओ।


पुनः सा व्याघ्रम् अवदत् - केन प्रकारेण त्वम् एतस्मिन् जाले बद्धः इति अहं प्रत्यक्षं द्रष्टुमिच्छामि (द्रष्टुम्+इच्छामि)। 
फिर उसने बाघ से कहा - किस तरह तुम इस जाल में बँधे यह मैं प्रत्यक्ष देखना चाहती हूँ। 


व्याघ्रः तद् वृत्तान्तं प्रदर्शयितुं तस्मिन् जाले प्राविशत्।
बाघ उस घटना को दिखाने के लिए उस जाल में घुस गया। 

 लोमशिका पुनः अकथयत्- सम्प्रति पुनः पुनः कूर्दनं कृत्वा दर्शय।
लोमड़ी ने फिर कहा- अब बार-बार कूदकर दिखाओ।


 सः तथैव (तथा+एव) समाचरत्। 
उसने वैसा ही किया। 

अनारतं कूर्दनेन सः श्रान्तः अभवत्।
लगातार  कूदने से वह थक गया। 

 जाले बद्धः सः व्याघ्रः क्लान्तः सन् निःसहायो भूत्वा तत्र अपतत् प्राणभिक्षामिव च अयाचत। 
जाल में बँधा हुआ वह बाघ थककर असहाय होकर वहीं गिर पड़ा। प्राणों की ही भीख मांगने लगा। 

लोमशिका व्याघ्रम् अवदत्- सत्यं त्वया भणितम् ‘सर्वः स्वार्थं समीहते।’
  लोमड़ी ने बाघ से कहा तूने सही कहा था, सभी स्वार्थ की इच्छा करते हैं।

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                          धन्यवादाः। 
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             (2) श्रवणाय  (Audio )- 
      
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               (3) दर्शनाय - दृश्य-श्रव्य (Video ) 
          (3.1)  पाठ: 
https://youtu.be/jjusxjF3DmU 
          (3.2) पाठ-वाचनं विवरणं च 
https://youtu.be/_z1kKjozfr4 

https://youtu.be/luSQj9Gltso 
     (OnlinesamskrTutorial)
   

     
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                  (Lesson Exercise )   
     

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           (5) अभ्यासाय  (B2B Worksheet)          

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                 8.5.2  अभ्यासः 


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