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8.10.1 कक्षा -अष्टमी, विषय:-संस्कृतम्, दशमः पाठः - नीतिनवनीतम् Class- 8th, Subject- Sanskrit, Lesson- 10 (NeetiNavneetam)

    8.10.1 कक्षा -अष्टमी, विषय:-संस्कृतम्, 

दशमः पाठः - नीतिनवनीतम्
Class- 8th,  Subject- Sanskrit, 

Lesson- 10  (NeetiNavneetam)
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नमो नमः। 
अष्टमकक्ष्यायाः रुचिरा भाग-3 इति पाठ्यपुस्तकस्य शिक्षणे स्वागतम् । 
अधुना वयं दशम-पाठं पठामः।  
 पाठस्य नाम अस्ति- 
                        नीतिनवनीतम्

अहं डॉ. विपिन:। 
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दशमः पाठः - नीतिनवनीतम्

हिंदी-सरलार्थम्

(1) अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।

चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम्॥

सरलार्थम्-

अभिवादनशील (प्रणाम करने की आदत वाले) तथा प्रतिदिन (सदैव) वृद्धों (बुजुर्गों की सेवा करने वाले व्यक्ति की) आयु, विद्या, यश और बल ये चारों चीजें बढ़ती हैं।

शब्दार्थम्-

अभिवादनशीलस्य - प्रणाम करने के स्वभाव वाले

नित्यम् - प्रतिदिन

वृद्धोपसेविनः - बड़ों (बुजुर्गों) की सेवा करने वाले के

चत्वारि - चार (चीजें)

तस्य - उसकी।

वर्धन्ते - बढ़ती हैं।

यशः प्रसिद्धि


(2) यं मातापितरौ क्लेशं सहेते सम्भवे नृणाम्।

न तस्य निष्कृतिः शक्या कर्तुं वर्षशतैरपि।।

सरलार्थम्-

मनुष्यों (बच्चों) की उत्पत्ति तथा पालन पोषण करने में माता पिता जिस कष्ट को सहते हैं , उसका बदला चुकाने (निराकरण करने में) बच्चा सौ वर्षों में भी समर्थ नहीं हो सकता है।

शब्दार्थम्-

यं - जिसको

मातापितरौ - माता और पिता

क्लेशम् - कष्ट को

सहेते - सहते हैं

सम्भवे - जन्म देने में

नृणाम् - मनुष्यों के

तस्य - उसका

निष्कृतिः - बदला

शक्या - समर्थ होते हैं

कर्तुम् - करने में

वर्षशतैः - सौ वर्षों में (के द्वारा)

अपि - भी

(3) तयोर्नित्यं प्रियं कुर्यादाचार्यस्य च सर्वदा।

तेष्वेव त्रिषु तुष्टेषु तपः सर्वं समाप्यते॥

सरलार्थम्-

उन दोनों (माता और पिता) का और आचार्य का सदा प्रतिदिन (सन्तानों द्वारा) प्रिय करना चाहिए। उन तीनों के ही सन्तुष्ट होने पर सारे तप समाप्त (सार्थक) हो जाते हैं।

शब्दार्थम्-

तयोः - उन दोनों का

नित्यम् - प्रतिदिन

कुर्यात् - करना चाहिए

तेषु - उन (के)

त्रिषु - तीनों (के)

तुष्टेषु - सन्तुष्ट होने पर

तपः - तपस्या

सर्वम् - सारी

समाप्यते - समाप्त (सार्थक) होती हैं


(4) सर्वं परवशं दुःखं सर्वमात्मवशं सुखम्।

एतद्विद्यात्समासेन लक्षणं सुखदुःखयोः॥

सरलार्थम्-

सारा दुःख दूसरों के वश में (होना) है और सारा सुख अपने वश में (होना) है। इसे ही संक्षेप से सुख और दुःख का लक्षण जानना चाहिए।

शब्दार्थम्‌-

सर्वम् - सारा

परवशम् - दूसरों के वश में (परतन्त्रता में)

आत्मवशम् - अपने वश में (स्वतन्त्रता में)

एतत् - यह

विद्यात् - जानना चाहिए

समासेन - संक्षेप से

सुखदुःखयोः - सुखं-दुःख का

(5) यत्कर्म कुर्वतोऽस्य स्यात्परितोषोऽन्तरात्मनः।

तत्प्रयत्नेन कुर्वीत विपरीतं तु वर्जयेत्॥

सरलार्थम्-

जिस काम को करते हुए इस (अपनी) आत्मा को सन्तोष होए उस काम को प्रयत्नपूर्वक करना चाहिए। उससे विपरीत (उल्टा) को छोड़ देना चाहिए।

शब्दार्थम्-

यत्कर्म - जिस काम को

कुर्वतः - करते हुए

अस्य - इस (का)

स्यात् - हो

परितोषरू - सन्तोष

अन्तरात्मनः - आत्मा का

तत् - वह

प्रयत्नेन - प्रयत्न से (कोशिश करके)

कुर्वीत - करना चाहिए

विपरीतम् - उल्टा

तु - तो

वर्जयेत् - छोड़ देना चाहिए

(6) दृष्टिपूतं न्यसेत्पादं वस्त्रपूतं जलं पिबेत्।

सत्यपूतां वदेद्वाचं मनः पूतं समाचरेत्॥

सरलार्थम्-

आँख से पवित्र करके (अच्छी तरह देख भाल करके) पैर रखना चाहिएए कपड़े से छानकर (शुद्ध करके) जल पीना चाहिए। सत्य से पवित्र करके (सत्य से युक्त करके) वाणी बोलनी चाहिए और मन से पवित्र करके (सोच-विचार करके) आचरण (व्यवहार) करना चाहिए।

शब्दार्थम्-

दृष्टिपूतं - आँख से देखकर

न्यसेत् - रखना चाहिए

पादम् - कदम को (पैर को)

वस्त्रपूतम् - कपड़े से छानकर

पिबेत् - पीना चाहिए

सत्यपूताम् - सत्य से पवित्र (परीक्षा) कर

वदेत् - बोलना चाहिए

वाचम् - वाणी को

समाचरेत् - आचरण करना चाहिए

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