7.6.1 कक्षा- सप्तमी, विषय:- संस्कृतम् षष्ठ: पाठ: (सदाचारः ) Class-7th, Subject-Sanskrit, Lesson-6 (Sadachaar )
7.6.1 कक्षा- सप्तमी, विषय:- संस्कृतम्
षष्ठ: पाठ: (सदाचारः )
Class-7th, Subject-Sanskrit,
Lesson-6 (Sadachaar)
************************************
नमो नमः।
सप्तमीकक्ष्यायाः रुचिरा भाग-2 इति पाठ्यपुस्तकस्य शिक्षणे स्वागतम्।
अद्य वयं षष्ठं पाठं पठामः।
पाठस्य नाम अस्ति -
सदाचारः
अहं डॉ. विपिन:।
************************************
इस पाठ में "सदाचारः" से संबंधित श्लोक दिए गए हैं।
सद् + आचारः
सद्- अच्छा
आचारः- व्यवहारः
सदाचारः- अच्छा व्यवहारः।
************************************
-पाठ अर्थ और संधि-विच्छेद सहित-
पञ्चम: पाठः
षष्ठः पाठः- सदाचारः
(1) आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः ।
नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति ।।
पदविभागः-
आलस्यं हि मनुष्याणां, शरीरस्थो महान् रिपुः।
ना-स्त्यु-द्यम-समो (न+अस्ति+उद्यम+समो) बन्धुः, कृत्वा यं नावसीदति (न+अवसीदति) ।।
सरलार्थ-
आलस्य मनुष्यों के शरीर में स्थित महान शत्रु है। परिश्रम के समान भाई नहीं है जिसको करने से दु:ख नहीं होता है।
(2) श्वः कार्यमद्य कुर्वीत पूर्वाह्णे चापराह्णिकम् ।
नहि प्रतीक्षते मृत्युः कृतमस्य न वा कृतम् ।।
पदविभागः-
श्वः कार्य-मद्य (कार्यम्+अद्य) कुर्वीत, पूर्वाह्णे चा-पराह्णिकम् (च+अपराह्णिकम्)। (अ प रा ह् णि क म्)
नहि प्रतीक्षते मृत्युः, कृत-मस्य (कृतम्+अस्य) न वा कृतम् ।।
सरलार्थ-
कल का कार्य आज ही कर लेना चाहिए, और दोपहर के बाद करने योग्य कार्य दोपहर से पहले कर लेना चाहिए। क्योंकि मृत्यु यह प्रतीक्षा नहीं करती, कि आपके द्वारा कार्य, किया गया है अथवा नहीं।
(3) सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात् सत्यमप्रियम् ।
प्रियं च नानृतं ब्रूयात् एष धर्मः सनातनः ।।
पदविभागः-
सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात्, न ब्रूयात् सत्य-मप्रियम् (सत्यम्+अप्रियम्)।
प्रियं च नानृतं (न+अनृतं) ब्रूयात्, एष धर्मः सनातनः ।।
सरलार्थ-
सत्य बोलना चाहिए प्रिय बोलना चाहिए, अप्रिय (बुरा) सत्य नहीं बोलना चाहिए। प्रिय असत्य (भी) नहीं बोलना चाहिए। यही सनातन धर्म है।
(4) सर्वदा व्यवहारे स्यात् औदार्यं सत्यता तथा ।
ऋजुता मृदुता चापि कौटिल्यं न कदाचन ।।
पदविभागः-
सर्वदा व्यवहारे स्यात्, औदार्यं सत्यता तथा ।
ऋजुता मृदुता चापि (च +अपि), कौटिल्यं न कदाचन ।।
सरलार्थ-
प्रत्येक मनुष्य को अपने व्यवहार में हमेशा उदारता, सत्यता, सरलता और कोमलता रखनी चाहिए और कभी भी कुटिलता का व्यवहार नहीं करना चाहिए।
(5) श्रेष्ठं जनं गुरुं चापि मातरं पितरं तथा ।
मनसा कर्मणा वाचा सेवेत सततं सदा ।।
पदविभागः-
श्रेष्ठं जनं गुरुं चापि (च +अपि), मातरं पितरं तथा ।
मनसा कर्मणा वाचा, सेवेत सततं सदा ।।
सरलार्थ-
प्रत्येक मनुष्य को (1) सज्जन पुरुषों की, (2) गुरुजनों कीऔर (3) अपने माता-पिता की हमेशा (1) मन से, (2) कर्म से और अपनी (3) वाणी से निरंतर सेवा करनी चाहिए।
(6) मित्रेण कलहं कृत्वा न कदापि सुखी जनः ।
इति ज्ञात्वा प्रयासेन तदेव परिवर्जयेत् ।।
पदविभागः-
मित्रेण कलहं कृत्वा, न कदापि सुखी जनः ।
इति ज्ञात्वा प्रयासेन, तदेव (तदा+ एव) परि-वर्जयेत् ।।
सरलार्थ-
कोई भी व्यक्ति अपने मित्र के साथ झगड़ा करके कभी भी सुखी नहीं हो सकता है इसलिए यह जानकर, प्रयत्नपूर्वक इस कृत्य (झगड़े) से बचना चाहिए।
************************************
(1) पठनाय (Lesson in PDF) -
(2) श्रवणाय (Audio )- (डॉ. विपिन:)
(3) दर्शनाय - दृश्य-श्रव्य (Video )
पाठ-वाचनं विवरणं च
(डॉ. विपिन: )
3.1.1 पाठ-वाचनं विवरणं च
(OnlinesamskrTutorial)
(OnlinesamskrTutorial)
------------------------------------------
संस्कृत-प्रभा
Comments
Post a Comment