7.7.1 कक्षा- सप्तमी, विषय:- संस्कृतम् सप्तमः पाठः (सङ्कल्पः सिद्धिदायकः) Class- 7th, Subject - Sanskrit, Lesson-7 (SankalapH SiddhiDaayakH)
7.7.1 कक्षा- सप्तमी, विषय:- संस्कृतम्
सप्तमः पाठः (सङ्कल्पः सिद्धिदायकः)
Class- 7th, Subject - Sanskrit, Lesson-7
(SankalapH SiddhiDaayakH)
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नमो नमः।
सप्तमीकक्ष्यायाः रुचिरा भाग-2 इति पाठ्यपुस्तकस्य शिक्षणे स्वागतम्।
अद्य वयं सप्तम-पाठं पठामः ।
पाठस्य नाम अस्ति -
सङ्कल्पः सिद्धिदायकः।
अहं डॉ. विपिन:।
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लक्षित-अधिगम-बिन्दवः (TLOs) -
1) संकल्पस्य महत्त्व-विषये ज्ञानम्।
2) शिव-पार्वत्याः विवाहस्य कथायाः विषये ज्ञानम्।
3) संस्कृत नाटकस्य अभ्यास:।
4) कठिन-पदानां उच्चारणं, नूतन-पदानां अर्थज्ञानम् च।
(पार्वती शिवं पतिरूपेण अवाञ्छत्। एतदर्थं सा तपस्यां कर्तुम् ऐच्छत्। सा स्वकीयं मनोरथं मात्रे न्यवेदयत्। तत् श्रुत्वा माता मेना चिन्ताकुला अभवत्।)
(पार्वती शिव को पति रूप में प्राप्त करना चाहती थी। इसके लिए उन्होंने तप करने की इच्छा की। उन्होेने अपने मन की इच्छा अपनी माता को बताई। यह सुनकर माता मेना चिंतित हो गई।)
मेना - वत्से! मनीषिताः देवताः गृहे एव सन्ति।
मेना- पुत्री! मनीषियों से लेकर देवता घर पर ही हैं।
तपः कठिनं भवति।
तपस्या बहुत कठिन होती है।
तव शरीरं सुकोमलं वर्तते।
तुम्हारा शरीर ज्यादा कोमल है।
गृहे एव वस।
तुम घर पर ही रहो।
अत्रैव तवाभिलाषः (तव+अभिलाषः) सफलः भविष्यति।
यहां पर ही तुम्हारी इच्छा सफल हो जाएगी।
पार्वती - अम्ब! तादृशः अभिलाषः तु तपसा एव पूर्णः भविष्यति।
माता! वैसी इच्छा तो तपस्या से ही पूरी होगी
अन्यथा तादृशं पतिं कथं प्राप्स्यामि।
अन्यथा वैसा पति कैसे प्राप्त करूंगी।
अहं तपः एव चरिष्यामि इति मम सङ्कल्पः।
मैं तपस्या ही करूंगी ऐसा मेरा संकल्प है।
मेना - पुत्रि! त्वमेव ( त्वम्+एव ) मे जीवनाभिलाषः।
मेना- हे पुत्री! तुम ही मेरे जीवन की अभिलाषा हो।
पार्वती - सत्यम्। परं मम मनः लक्ष्यं प्राप्तुम् आकुलितं वर्तते।
पार्वती- सत्य है। किंतु मेरा मन लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए व्याकुल है।
सिद्धिं प्राप्य पुनः तवैव (तव+एव) शरणम् आगमिष्यामि।
सिद्धि पाकर फिर से तुम्हारी शरण में आ जाऊंगी।
अद्यैव (अद्य+एव) विजयया साकं गौरीशिखरं गच्छामि।
आज ही विजया के साथ गौरीशिखर पर जा रही हूँ।
(ततः पार्वती निष्क्रामति)
(उसके पश्चात पार्वती निकल जाती है।)
(पार्वती मनसा वचसा कर्मणा च तपः एव तपति स्म।
(पार्वती मन से वचन से और कर्म से तपस्या करती थी।
कदाचिद् रात्रौ स्थण्डिले, कदाचिच्च शिलायां स्वपिति स्म।
कभी रात में नंगी जमीन पर, कभी चट्टान पर सोती थी।
एकदा विजया अवदत्।)
एक बार विजया बोली।)
विजया - सखि! तपःप्रभावात् हिंस्रपशवोSपि तव सखायः जाताः।
विजया- हे सखी! तपस्या के प्रभाव से हिंसक पशु भी तुम्हारे मित्र बन गए हैं।
पञ्चाग्नि-व्रतमपि त्वम् अतपः।
पंचाग्नि के व्रत से भी तुमने तपस्या की।
पुनरपि तव अभिलाषः न पूर्णः अभवत्।
फिर भी तुम्हारी इच्छा पूर्ण नहीं हुई।
पार्वती - अयि विजये! किं न जानासि? मनस्वी कदापि धैर्यं न परित्यजति।
पार्वती- अरी! विजया क्या नहीं जानती हो, मनस्वी कभी भी धैर्य को नहीं छोड़ते हैं।
अपि च मनोरथानाम् अगतिः नास्ति।
और मनोरथों की कभी समाप्ति नहीं है।
विजया - त्वं वेदम् अधीतवती। यज्ञं सम्पादितवती।
विजया - तुमने वेद पढ़े। यज्ञ किया।
तपःकारणात् जगति तव प्रसिद्धिः।
तपस्या के कारण से जगत में तुम्हारी प्रसिद्धि है।
‘अपर्णा’ इति नाम्ना अपि त्वं प्रथिता।
"अपर्णा" इस नाम से भी तुम प्रसिद्ध हो गई हो।
पुनरपि तपसः फलं नैव दृश्यते।
फिर भी तपस्या का फल दिखाई नहीं दे रहा है।
पार्वती - अयि आतुरहृदये! कथं त्वं चिन्तिता ---------।
पार्वती - अरी व्याकुल हृदय वाली तुम चिंतित क्यों हो.............।
(नेपथ्ये- अयि भो! अहम् आश्रमवटुः। जलं वाञ्छामि।)
(परदे के पीछे से - अरे मैं आश्रम का ब्रहमचारी हूँ। जल पीना चाहता हूँ।)
(ससम्भ्रमम्) विजये! पश्य कोSपि वटुः आगतोSस्ति।
(आश्चर्य के साथ) हे विजया! देखो कोई ब्रह्मचारी आया है।
(विजया जल्दी से गई, अचानक ही ब्रह्मचारी रूप धारी शिव ने वहां प्रवेश किया)
विजया - वटो! स्वागतं ते।
विजया - हे ब्रह्मचारी! तुम्हारा स्वागत है।
उपविशतु भवान्।
आप बैठो।
इयं मे सखी पार्वती। शिवं प्राप्तुम् अत्र तपः करोति।
यह मेरी सखी पार्वती है। शिव को प्राप्त करने के लिए यहां तपस्या कर रही है।
वटुः - हे तपस्विनि! किं क्रियार्थं पूजोपकरणं वर्तते, स्नानार्थं जलं सुलभम्,
वटु - हे तपस्विनी! क्या क्रिया के लिए पूजा के उपकरण हैं, स्नान के लिए जल सहज प्राप्त है,
भोजनार्थं फलं वर्तते? त्वं तु जानासि एव शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्।
भोजन के लिए फल हैं, तुम तो जानती ही हो कि शरीर ही पहला धर्म का साधन है।
(पार्वती चुप रहती है)
वटुः - हे तपस्विनि! किमर्थं तपः तपसि? शिवाय?
वटु - हे तपस्विनी! किसलि तपस्या कर रही हो? शिव के लिए?
(पार्वती पुनः तूष्णीं तिष्ठति)
(पार्वती फिर चुप रहती है)
विजया - (आकुलीभूय) आम्, तस्मै एव तपः तपति।
विजया- (परेशान होकर) हाँ, उन्हीं के लिए ही तपस्या कर रही है।
(ब्रह्मचारी रूप वाले शिव अचानक जोर से हंसते हैं।)
वटुः - अयि पार्वति! सत्यमेव त्वं शिवं पतिम् इच्छसि?
वटु - अरी पार्वती! सच में ही तुम शिव को पति के रूप में चाहती हो?
(उपहसन्) नाम्ना शिवः अन्यथा अशिवः।
(हंसते हुए) नाम से शिव है अन्यथा अशिव है।
श्मशाने वसति।
श्मशान में रहता है।
यस्य त्रीणि नेत्राणि, वसनं व्याघ्रचर्म,
जिसके तीन नेत्र हैं, बाघ के चमड़े के वस्त्र हैं,
अङ्गरागः चिताभस्म,
चिता की राख ही उसका अंगराग है
परिजनाश्च भूतगणाः।
और भूतगण परिजन हैं।
किं तमेव (तम्+एव) शिवं पतिम् इच्छसि?
क्या उसी शिव को पति के रूप में चाहती हो?
पार्वती - (क्रुद्धा सती) अरे वाचाल! अपसर।
सरलार्थ- (पार्वती क्रोधित होकर) अरे बडबोले! दूर हट।
जगति न कोSपि (कः+अपि) शिवस्य यथार्थं स्वरूपं जानाति।
जगत में कोई भी शिव के वास्तविक रुप को नहीं जानता है।
यथा त्वमसि (त्वम्+असि) तथैव वदसि।
जैसे तुम हो वैसे ही बोल रहे हो।
(विजयां प्रति) सखि! चल। यः निन्दां करोति सः तु पापभाग् भवति एव, यः शृणोति सोSपि पापभाग् भवति।
(विजया की ओर) हे सखी। चलो। जो निंदा करता है, वह तो पाप का भागी होता ही है, जो सुनता है वह भी पाप का भागी होता है।
(पार्वती द्रुतगत्या निष्क्रामति।
(पार्वती तेज गति से निकल जाती है।
तदैव पृष्ठतः वटोः रूपं परित्यज्य शिवः तस्याः हस्तं गृह्णाति।
तभी पीछे से ब्रह्मचारी रूप को छोड़कर शिव उनके हाथ को पकड़ लेते हैं।
पार्वती लज्जया कम्पते)
पार्वती शर्म से कांपने लगती है)
शिवः - पार्वति! प्रीतोsस्मि तव सङ्कल्पेन।
शिव- हे पार्वती! तुम्हारे संकल्प से मैं प्रसन्न हूँ।
अद्यप्रभृति अहं तव तपोभिः क्रीतदासोsस्मि।
आज से मैं तुम्हारी तपस्या से तुम्हारा दास हूँ।
(विनतानना पार्वती विहसति)
(नीचे मुँह की हुई पार्वती हंसती है)
(1) पठनाय ( NCERT Book in PDF)
पाठ-वाचनं विवरणं च
7.7.1 https://youtu.be/zeM0ZYRbC84
7.7.2 https://youtu.be/sokdN6I9M18
(OnlinesamskrTutorial)
अभ्यासः
https://youtu.be/pzne2rYyjZ4
(OnlinesamskrTutorial)
(Lesson Exercise )
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